कानपुर देहात:- बीस दिन बाद 37 बरस का वक्त गुजर जाएगा, लेकिन आस अधूरी है। अपने साथ हुए अत्याचार का इंतकाम लेने के लिए बेगुनाहों के नरसंहार की कहानी पुरानी नहीं हुई है। इंसाफ के लिए निर्दोष ठाकुरों के खून से लाल हुई माटी आज भी बेकरार है। हत्याकांड की मुख्य कातिल का कत्ल हो चुका है, दर्जनों गवाहों की मौत हो गई है। बावजूद मुकदमा खत्म नहीं हुआ है। घटना के 31 साल बाद मुकदमा शुरू हुआ, इसी दरम्यान ज्यादातर किरदार दुनिया छोड़ गए। तारीख पर तारीख से परेशान गांव की गुहार सुनने के लिए जनसेवकों के पास वक्त नहीं है। वजह है गांव की छोटी आबादी। सिर्फ 40 परिवारों के 178 वोटरों के लिए 100 किलोमीटर दूर पहुंचने की फुर्सत कहां? यह दर्दनाक कहानी है कानपुर देहात के बेहमई गांव की, जहां 14 फरवरी 1981 को दस्यु सुंदरी फूलनदेवी और उसके गैंग ने खून की होली खेली थी।
नहीं भूलती है 14 फरवरी 1981 की शाम
बेहमई को तारीख याद रखने की आदत हो गई है। नरसंहार के मुकदमे की तारीख, फूलनदेवी की मौत की तारीख, ठाकुर डकैत श्रीराम की मौत की तारीख... साथ ही विकास के पत्थर रखने के लिए नेताओं के जरिए मिली तारीख। ऐसी तमाम अनगिनत तारीखों में बेहमई को 14 फरवरी 1981 की तारीख नहीं भूलती है। वह एक शुभ मुहुर्त था, जब गांव के राम सिंह की बिटिया की बारात आई थी, लेकिन यह शुभ मुहुर्त बेहमई के लिए दुर्भाग्य बनकर आया था। उस वक्त के खूंखार डकैत श्रीराम-लालाराम की बेहमई गांव में बंधक बनी फूलनदेवी अपने साथ कुछ दिन पहले हुए सामूहिक बलात्कार का बदला लेने के लिए गैंग के साथ पहुंची थी। खबर थी कि शादी में शामिल होने के लिए श्रीराम भी आया था, लेकिन वह भाग निकला। खुन्नस में फूलन ने ठाकुर परिवारों के शनिवार की शाम बीस लोगों को एक लाइन में खड़ा करने के बाद गोलियों से भून डाला।
25 अगस्त 2012 को खुला मुकदमा, फूलन नहीं आई
नरसंहार के 31 साल बाद 25 अगस्त 2012 को कानपुर देहात की अदालत में अभियुक्तों पर चार्ज तय हुए। मुकदमा शुरू हुआ, लेकिन मुख्य अभियुक्त फूलनदेवी अब दुनिया में नहीं थी। खुद को क्षत्रिय शूरवीर कहने वाले शेरसिंह राणा ने 25 जुलाई 2001 को मिर्जापुर की तत्कालीन सांसद को नई दिल्ली में गोलियों से भून डाला था। अदालत ने बेहमई कांड के लिए दस लोगों के नाम बतौर अभियुक्त तय किए। फूलन की मौत के बाद शेष नौ में पांच हाजिर थे, जबकि चार फरार हैं। एक अभियुक्त को अदालत ने घटना के वक्त नाबालिग करार देकर किशोर न्यायालय में मुकदमा स्थानांतरित कर दिया। शेष चार अभियुक्त- कोसा, भीखाराम, रामसिंह और श्यामबाबू के खिलाफ सुनवाई जारी है, लेकिन तमाम गवाहों और जिरह के बावजूद अंतिम फैसला नहीं हुआ है।
जनसेवकों की तारीखों से फाइल हुई मोटी
बेहमई का दर्द सिर्फ फूलनदेवी का दिया जख्म नहीं है, बल्कि वक्त-वक्त पर नेताओं ने इस जख्म को कुरेदकर नासूर बना दिया है। 14 फरवरी 1981 के अगले दिन से शुरू हुए वादों की फेहरिस्त अंतहीन है। उस वक्त कांग्रेसी नेताओं ने बेहमई के विकास के वादे किए थे। बदलते वक्त के साथ जनता दल, फिर सपा और बसपा ने बेहमई को तमाम सपने दिखाए। सपनों के सौदागरों की सूची में भाजपा के नेताओं के नाम भी दर्ज हैं। वोटों के लालच में या चर्चित होने के लिए नेताओं के काफिले तमाम मर्तबा बेहमई की सरहद में दाखिल हुए। दर्द सुना और अपनापन जताने के साथ विकास शुरू करने की एक तारीख थमाकर लौट गए। लौटते ही वादे भूल गए और बेहमई के हिस्से में सिर्फ इंतजार आया। गांव के
13 किमी दूर सरक गया पुल, पेंशन लापता
बेहमई के साथ किए गये फरेब की दास्तां की बानगी यूं समझिए कि बतौर यूपी के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने एक मर्तबा बेहमई का दौरा किया। वादा किया कि मुख्यालय से जोडऩे के लिए सुदूर बेहमई में एक पुल बनाया जाएगा। अरसा बाद पुल का निर्माण हुआ, लेकिन बेहमई से 13 किलोमीटर दूर। फूलन के नरसंहार के कारण विधवा हुई महिलाओं को पेंशन तक नसीब नहीं है। फूलनदेवी के गैंग की गोली से जख्मी हुए जंतर सिंह कहते हैं कि सिकंदरा की हद खत्म होने के बाद की बदहाली बयां करने लगती है कि आप बेहमई के करीब हैं।
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